83. कोसल - दुर्ग : वैशाली की नगरवधू
श्रावस्ती से तीन कोस दक्षिण दिशा में सरयू के तट पर एक सुदृढ़ दुर्ग था , जो कोसल - कोट के नाम से प्रसिद्ध था । इस कोट के एक ओर नदी और तीन ओर खाई थी । दुर्ग का रूप वर्गाकार था और इसकी हर एक भुजा सहस्र हाथ लम्बी थी । गढ़ की चारों दिशाओं में दो विशाल मुख्य द्वार और आठ छोटे प्रवेश- पथ थे। गढ़ की बाहरी प्राचीर मिट्टी की थी , जो तीस हाथ ऊंची थी और उसकी नींव का निचला भाग सौ हाथ मोटा था । प्राचीर के दोनों ओर तीन - चार आयत विस्तार का मोटा पक्का मसाले का पलस्तर था । उसके बाद पक्की ईंटों की पर्त लगी थी । जो छोटे - छोटे आठ द्वार थे, उनमें से प्रत्येक की चौड़ाई पचीस हाथ थी । इन द्वारों के भीतरी भाग में तेरह- तेरह हाथ के और भी द्वार थे। इन द्वारों के पार्श्व- भाग में पांच- छ : हाथ चौड़े और भी द्वार थे। सूर्यास्त के बाद बड़े द्वारों के बन्द हो जाने पर कोट के निवासी इन्हीं छोटे द्वारों से आते - जाते थे । प्रधान द्वार के पार्श्व- भाग में ऊंचे-ऊंचे तिरसठ हाथ लम्बे और अट्ठाईस हाथ चौड़े चतुष्कोण गुम्बज थे, जिन पर चढ़ने को सीढ़ियां बनी हुई थीं । दुर्ग में बीचोंबीच सोलह खम्भों पर सभा - भवन टिका था । खाई और मुख्य द्वार को एक काठ का बहुत भारी पुल जोड़ता था । सूर्यास्त के बाद यह पुल रस्सियों से उठा दिया जाता। उस समय दुर्ग में आना किसी भांति सम्भव नहीं था । श्रावस्ती से बाहर आते ही अगम कान्तार लग जाता था , उसमें कोई मार्ग या वीथी नहीं थी । सम्पूर्ण कान्तार बड़े-बड़े घने वृक्षों और गुल्मों से भरा था । वहां बहुत - से हिंस्र जन्तु रात -दिन विचरण करते थे। सर्वसाधारण की बात तो दूर रही , बड़े- बड़े जीवट के आदमियों को भी उधर जाने का साहस नहीं होता था । दुर्दान्त डाकू, भीषण अपराधी, पक्के जुआरी, हत्यारे , राजविद्रोही आदि राजदण्ड से बचने के लिए ही इस महाकान्तार में आश्रय लिया करते थे। दुर्ग में थोड़ी- सी सेना भी रहती थी । परन्तु सब सैनिक रात को दुर्ग में नहीं रहने पाते थे। दुर्ग के मुख्य द्वार से कोई सहस्र हाथ के अन्तर पर एक छोटी- सी बस्ती थी । इसी में इन सैनिकों के परिवार रहते थे। सैनिक भी रात को वहीं चले आते थे। दुर्ग में केवल गिने हए आवश्यक जन ही रह जाते थे। श्रावस्ती से एक घुमावदार कच्ची राह इस ग्राम तक आई थी ।
दुर्गपति एक वृद्ध क्षत्रप थे। वे सपरिवार दुर्ग ही में रहते थे। उनकी आयु साठ को पार कर गई थी । डील -डौल के लम्बे , हाथ -पैरों के मज़बूत और साहसी आदमी थे। उनका कण्ठ- स्वर बहुत भारी था और दृष्टि पैनी । परिवार में केवल एक किशोरी इकलौती पुत्री थी । उसे जिसने शिशुकाल से पोषण किया , वह एक क्रीता काली दासी थी । दासी को दुर्गपति और उनकी पुत्री दोनों बहुत मानते थे। विधि -विडम्बना से दुर्गपति भग्न - हृदय थे । उन्होंने एकान्त एकनिष्ठ जीवन स्वयं ही महाराज प्रसेनजित् से मांग लिया था । गत सत्रह वर्षों से वे निरन्तर इसी दुर्ग में रह रहे थे। एक बार भी वे इससे बाहर कभी नहीं निकले । इस दासी के सिवा उनका एक दास भी था । वह वज्र जड़ था । वह निपट बहरा और गूंगा था , परन्तु उसमें एक सांड़ के बराबर बल था । इसे दुर्गपति ने बहुत बाल्यावस्था में तीर्थयात्रा करते हुए अनार्य देश से मोल खरीदा था ।
मालिक की भांति दुर्गपति के दोनों सेवक भी विश्व के सम्बन्धों से पृथक् थे। ये दोनों भी कभी किसी नगर में नहीं गए । हां , दास और कभी- कभी दासी भी उस निकटवर्ती गांव में अवश्य चले जाते थे।
इन चार मूल प्राणियों के सिवा रात को पुल भंग होने के बाद केवल आठ सिपाही इस दुर्ग में रह जाते थे। वे केवल दुर्ग- द्वार पर पहरा देते थे।
दुर्ग के मुख्य पश्चिम द्वार के निकट , जिधर गहन कान्तार पड़ता था , एक दृढ़ प्रकोष्ठ पत्थरों का बना था । यह वास्तव में बन्दीगृह था । बन्दीगृह में कोई प्रकट प्रवेश - द्वार न था । केवल छत के पास एक आयत - भर का छिद्र था । इस छिद्र के द्वारा ही बन्दी को वायु , अन्न , जल और प्रकाश प्राप्त होता था । गुप्त द्वार जल के भीतर था । द्वार के ऊपर एक अलिन्द था , जिसमें लौह- फलक जड़े थे। उस अलिन्द में , जब वहां कोई बन्दी रहता था , तो आठ प्रहरी खास तौर पर रात -दिन पहरा देने को नियत रहते थे।
खाई के उस पार इस बन्दीघर के ठीक छिद्र के सामने एक छोटी - सी पक्की दमंज़िली अट्टालिका थी । यह अट्टालिका प्रायः सदा बन्द रहती थी । कभी -कभी इसमें रहस्यपूर्ण रीति से कोई राजपुरुष दो - चार दिन को आ ठहरते थे। वहां से दुर्ग के उस ओर वाली बस्ती को केवल एक छोटी- सी पगडंडी चली गई थी । बस्ती में सिपाहियों के घरों के सिवा कुछ घर कृषकों के भी थे। उन्होंने आसपास की थोड़ी - सी भूमि साफ करके अपने खेत बना लिए थे। कुल बस्ती में केवल एक दुकान मोदी की थी तथा एक पानागार था । रात्रि को बहुत देर तक उसी पानागार में चहल - पहल रहती थी । बस्ती के रहने वाले प्रायः वहां बैठकर पान करते हुए गप्पें लड़ाया करते थे ।
इस समय दुर्ग में एक बन्दी था । इससे बन्दीगृह के बाहरी अलिन्द में आठ सशस्त्र सैनिकों का पहरा बैठा था और खाई के उस पार जो घर था उसमें भी मनुष्यों के रहने का आभास मिल रहा था । परन्तु नियमित रूप से जैसी व्यवस्था चली आ रही थी , दुर्ग में वैसी ही चल रही थी । दुर्गपति साधारण नित्यनियम से रह रहे थे। केवल बन्दीगृह के प्रान्त को छोड़कर और कहीं कुछ नवीनता नहीं प्रकट हो रही थी ।